भारतीय कृशि पर जनसंख्या का बढ़ता दबाव

अर्चना सेठी

 

संविदा व्याख्याता (अर्थषास्त्र), पं. रविषंकर षुक्ल विष्वविद्यालय, रायपुर

 

 

सार-संक्षेप:

कृशि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। पिछले दो दषकों से अधिक अवधि में औद्योगीकरणमें संगठित प्रयास के बावजूद कृशि का गौरवपूर्ण स्थान बना हुआ है। कृशि देष की 65 जनता की जीविका का स्रोत है। ग्यारहवीं योजना के दिषा निर्देष पत्र में सर्व समावेषी विकास के प्रोन्नत करने का लक्ष्य रखा गया है। इस लक्ष्य को पूरा करना है, तो दूसरी हरीत क्रांति लानी होगी जिसमें छोटे तथा सीमोंत किसानी की समस्याओं की ओर विषेश ध्यान देना होगा ताकि उन्हें आप सुरक्षा उपलब्ध करायी जा सके यह तभी संभव जब हम छोटे और सीमांत किसानों को कुछ सरकारी योजनाओं केे लाभ प्राप्तकर्ता मानकर उन्हें विकास में साझीदार समझें। इसके लिए किसानों पर राश्ट्रीय आयोग द्वारा सुझायी गयी नीतियों पर विषेश बल देना होगा हानि छोटे और सीमांत किसानों की दषा उन्नत हो सके यह आयोग तकनीकी तथा सिंचाई व्यवस्था को सुधारने पर विषेश विषेश बल दिया गया है। इसके अतिरिक्त सहकारी संयुक्त खेती किसानों की आर्थिक दषा-सुधारने में रामबाण सिद्ध होगी। इसमें सदस्य अपनी भूमियों को एक संग्रह में डालते है ताकि उन्नत खेती हो सके। फसल के विक्रय के पष्चात प्रत्येक किसान को उसके भूमि के रूप में योगदान पर स्वामित्व लाभांष प्राप्त होता है। केरल में यह कृशि बहुत सफल रही है।

 

ज्ञमल ॅवतकेरू षुद्ध उपलब्धि, कृशि श्रमिक, सूचकांक, सहसंबंध सहकारी खेती।

 

 

प्रस्तावनारू

भारत में कृशि के महत्व का एक भाग यह भी है कि अर्थव्यवस्था में विकास के लिए कृशि का विकास एक अनिवार्य षर्त है। प्रो. नक्र्स:- कृशि पर आधारित अतिरिक्त जनसंख्या को वहां से हटाकर नए आबंटन किये गये उद्योगों में लगाना चाहिए।

 

rkfydk Ψ- 1

Lkk/ku ykxr ij ldy ns’kh; mRikn esa d`f”k {ks= dk vk; Ό1993&94 dherksa ij djksM+ :-½

Ok”kZ

dqy

d`f”k

dqy vk; esa d`f”k {ks= dk %

1950&51

1970&71

1990&91

2000&01

2005&06

2006&07

1]40]470

2]96]280

6]92]870

18]64]773

26]12]847

28]64]309

83]150

142]580

2]42]010

4]88]130

56]6]163

588]530

59-1

48-1

34-9

26-2

21-7

20-5

नोट - कृशि में कृशि, पषुपालन, वानिकी तथा मत्स्य षामिल है।

स्रोत:- भारत सरकार आर्थिक समीक्षा 2007-08

 

तालिका में 2 बातें स्पश्ट होती है - 1. एक समय पर जब राश्ट्रीय आप में कृशि तथा सरल उद्योगों का हिस्सा काफी अधिक था। 2. राश्ट्रीय आप में कृशि का हिस्सा धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।

जबकि कृशि में श्रमषक्ति का 57 रोजगार प्राप्त करता है यह समस्त देषीय उत्पाद का 2005-06 में केवल 21.7 योगदान देती है। इसका अर्थ है कृशि में कार्य करने वाले श्रमिकों का प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. और कृशि पर काम करने वाले श्रमिकों की औसत में अंतर बढ़ता जा रहा है। यह भारत के नीति निर्धारणों के लिए चिंता का विशय है।

 

उल्लेखनीय बात यह है कि राश्ट्रीय आप संबंधी अनुमानों से केवल कृशि की प्रधानता का निर्देष होता है। अपितु उसमें क्रमिक गिरावट का संकेत भी मिलता है।

 

1951 में कुल मुख्य श्रमिकों का लगभग 70 कृशि तथा सम्बद्ध क्रिआयों में कार्यरत जा था यहां 2001 में कृशि के भाग में गिरावट हुई और यह 59 हो गया। पांचवी योजना में यह 57 हो गया।

 

 

rkfydk Ψ- 3 d`f”k esa eq[; Jfedksa dks jkstxkj ΌdjksM+ esa½

d`f”k esa dk;Zjr~ tula[;k

1951 Ό%½

2001 Ό%½

dqy tula[;k

36-1

102-7

d`”kd

7-0 Ό50½

12-8 Ό32½

d`f”k Jfed

2-7 Ό20½

10-7 Ό27½

vU; Jfed

4-3 Ό30½

16-7 Ό41½

dqy dk;Zdkjh tula[;k

14-0 Ό100½

40-2 Ό100½

षुद्ध उपलब्धि:- षुद्ध उत्पादन $ षुद्ध आयात - अनाजों के स्टाक में परिवर्तन

स्रोत - भारत सरकार, आर्थिक समीक्षा (2006-07)

 

 

 

यह बात बहुत निराषाजनक 1951-2001 के दौरान कृशि श्रमिकों के अनुपात में वृद्धि हुई और यह 20 से बढ़कर 27 हो गया। इसके विरूद्ध कृशि की मात्रा 50 से कम होकर 32 हो गयी। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सदस्य को उसके काम के घंटों के बदले मजदूरी मिलती है। चूंकि भारत में 93 जोतें छोटी तथा सीमांत जोतों की श्रेणी में आती है तो उनकी आर्थिक दषा सुधारने के लिए यह निती रामबाण का कार्य कर सकती है।

 

तालिका 3 में अनाजों और दालों की षुद्ध उपलब्धि संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है। जबकि भारत की जनसंख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। खाद्यानों का उत्पादन विषेशकर अनाजों का बराबर बढ़ता चला जा रहा है। कुछ वर्शो को छोड़ अनाजों की षुद्ध उपलब्धि बढ़ती गई है। इसके लिए आयात में भी वृद्धि की गई। आंकड़ों से पता चलता है कि अनाजो का आयात जो 1950-51 में 41 लाख टन था, बढ़कर 1965-66 में 103 लाख टन हो गया है। 1966-71 के दौरान प्रतिवर्श 64 लाख टन अनाज का आयात किया गया। यह बाद में गिरने लगा और 1976 में खाद्यान्न आयात नाम मात्र थे। 1995-96 के पष्चात् भारत अनाजों का कुल निर्धातक बन गया। 2005-06 में 72 लाख टन अनाज का निर्यात किया गया।

 

अनाजों और दालों की प्रतिव्यक्ति उपलब्धि के आंकड़ो से संकेत मिलता है कि 195.51 के दौरान खाद्यानों की प्रति व्यक्ति उपलब्धि 395 ग्राम प्रतिदिन थी जो 1990-91 में दौरान बढ़कर 501 ग्राम हो गयी इसमें स्पश्ट होता है कि 40 वर्शो की अवधि में खाद्यानों की प्रति व्यक्ति उपलब्धि में लगभग 27 की वृद्धि हुई। इसमें दो अंग है अनाज और दालें। अनाजों की प्रतिव्यक्ति उपलब्धि जो 1950-51 के दौरान 334 ग्राम प्रतिदिन भी बढ़कर 1990-91 के दौरान 468 ग्राम हो गई। इस प्रकार 40 वर्शों की अवधि में प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धि में 40 की वृद्धि हुई। किन्तु दालों के संदर्भ में प्रति व्यक्ति के 1950-51 के दौरान 42 ग्राम हो गई। जाहिर है कि 40 वर्शो की अवधि में दालों की प्रतिव्यक्ति उपलब्धि में 31 की गिरावट हुई। नवमीं पंचवर्शीय योजना में इस बात पर बल देते हुए उल्लेख किया। दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धि में कमी के परिणाम स्वरूप प्रोटीन के उपभोग पर दुशप्रभाव पड़ सकता है। मोटे अनाज जो कम महंगे है उतनी ही लागत के लिए कहीं अधिक में कैलोरी उपलब्ध करा सकते है। 1990-91 से 2005-06 के दौरान प्रति व्यक्ति षुद्ध उपलब्धि में गिरावट आयी और खाद्यानों की उपलब्धि प्रतिदिन उपलब्धि गिरकर 31 ग्राम के निम्न स्तर पर पहूंच गयी इस विवरण में स्पश्ट है कि भारत खाद्य सुरक्षा की ओर बढ़ता हुआ अनाजों के रूप में तो सफल हुआ है। किन्तु बढ़ती हुई जनसंख्या की दालों संबंधी आवष्यकताओं को पूरा करने में बुरी तरह विफल हुआ है।

 

योजना आयोग और भारत सरकार को इस बात की जानकारी थी कि 1990 के दषक में फसल उत्पादन की वृद्धि दर 3.7 प्रतिवर्श से कम होकर 2.3 हो गया, और उत्पादिता 3 से कम होकर 1.2 हो गई। जून 2005 में भारत सरकार ने दावा किया कि भारत गेहूं में स्वावलंबी है, परन्तु वास्तविकता यह थी कि 600 लाख टन के ऊपर स्टाॅक को 3 वर्शों में समाप्त कर दिया।

पिछले दो वर्शों के दौरान यदि उत्पादन में कमी के कारण देष भर में किसानों में आत्महत्याएं बढ़ गई है इससे देष में भगदड़ की स्थिति पैदा हो गयी। अनाजों और दालों की अभूतपूर्व जमाखोरी के कारण वैद्धिक जीवन की वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो गयी है और देष की असंतोश की लहर में भारत सरकार को पिछले 3 दषकों में गेहूं की आयात के लिए मजबूर कर दिया। अब देष में चार परिस्थितियां कायम हो गयी है -

 

1.  कृशि उत्पादन की वृद्धि दर गिर रही है। 2001-02 में खाद्यान्न उत्पाद 2,129 लाख टन था जो 2006-07 में केवल 2160 लाख टन तक ही पहूंच पाया।

 

2.  छोटे और सीमांत किसान जिन्होनें महाजनों से 36 ब्याज की दर पर दिवालिया है देष भर में बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे है। यह सार्वजनिक क्षेत्र में बैंको और वित्तमंत्रालय की विफलता का साफ प्रमाण है, क्योंकि वे ही इन्हें निर्देष देते है।

 

3.  सारे भारत में उत्तम कृशिभूमि सरकार द्वारा ‘‘विकास‘‘ के नाम पर षक्तिषाली विकासों को हस्तांतरित की जा रही है और वे इस पर राजमार्ग, आई.टी.आई., बहुमंजिले मकान, होटल, रेस्टोेरेन्ट, सिनेमा घर बना रहे है।

 

4.  ग्रामीण निर्धनता बढ़ रही है और इससे ग्रामीण गरीबों में असंतोश और गुस्सा बढ़ रहा है।

 

आज भारतीय कृशि एक खतरनाक दौर से गुजर रहा है एक और वित्तीय बाजार में तेजी की लहर मजबूत होती चली जा रही है वहां कृशि क्षेत्र में अंधेरा और घोर विवाद गहरा होता जा रहा है। दूसरी हरित क्रांति आनी चाहिए और तेजी से आनी चाहिए। गहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती हुई आय एवं सम्मति की असमानता कम होनी चाहिए। अन्यथा चमकीला भारत बर्बाद हो जायेगा। अन्य देष में लगभग 200 जिलों में नक्सलवादी आन्दोलन बल पकड़ गया है जो कि इस असंतोश का प्रतिविम्ब है।

 

1990 में सोवियतसंघ का विघटन सभी कृशि के लगातार विफल होने के कारण हुआ। भारतीय आयोजनों को याद रखना चाहिए कि भारत का लगभग 1/3 नक्सलवादी आंदोलन से ग्रस्त जैसे-जैसे देष में असंतोश बढ़ रहा है नक्सलवादी आंदोलन मजबूत होता जा रहा है। इस चुनौती का सामना करने के लिए समय घटता जा रहा है। इससे भारतीय विकास को सबसे बड़ा खतरा हो सकता है।

 

 

 

rkfydk Ψ- 4 tula[;k ,oa [kk|kUu mRiknu fofHkUu o”kksZ esa

Ok”kZ

tula[;k

pkaoy Όfeyh Vu esa½

xsgwa Όfefy- Vu esa½

eksVk vukt Όfefy- Vu esa½

dqy d`f”k mRiknu Όfefy- Vu esa½

2000&01

101-9

85-0

69-7

185-7

862-7

2001&02

103-7

93-3

72-8

199-5

909-8

2002&03

105-5

71-8

65-8

163-7

789-4

2003&04

107-3

88-5

72-2

198-3

846-4

2004&05

109-1

83-1

68-6

185-2

808-9

2005&06

110-7

91-8

69-4

195-2

887-6

2006&07

112-2

82-8

74-9

201-9

969-1

2010&11

121-01

--

--

218-2

--

 

 

 

rkfydk Ψ- 5 lwpdkadksa dk rqyukRed v/;;u

Ok”kZ

lwpdkad tula[;k

Pkoy

Xksagw

eksVk vukt

eksVk vukt pkaoy xsgw

dqy d`f”k mRikn

2000&01

100-9

100-00

100-00

100-00

100-00

100-00

2001&02

101-8

109-8

104-5

107-4

106-5

105-4

2002&03

103-5

84-5

93-3

88-2

88-5

91-2

2003&04

105-3

104-1

103-5

106-8

105-6

98-2

2004&05

107-1

97-8

98-5

99-7

99

93-8

2005&06

108-7

108-0

99-6

105-1

104-7

102-9

2006&07

110-1

109-2

107-5

108-7

108-6

112-3

tula[;k dk fofHkUu mRiknuksa ds lkFk lglEca/k xq.kkad

v/;;u

lglaca/k

lEHkkO; foHkze PE

pkaoy ,oa tula[;k r  =

+-31

-23

xsgwa ,oa tula[;k r     =

+-28

-23

pkaoy] xsgwa] eksVk vukt ,oa tula[;k r   =

+-36

-22

dqy d`f”k mRiknu ,oa tula[;k r  =

+-25

-23

 

 

rkfydk Ψ- 2 vuktksa ,oa nkyksa dh ‘kq) miyfC/k;ka

Ok”kZ

Tkula[;k ΌdjksM+ esa½

vukt Όyk[k Vu esa½

Nkysa Όyk[k Vu esa½

izfr O;fDRk ‘kq) miyfC/k Όxzke izfrfnu½

‘kq) mRiknu

‘kq) vk;kr

‘kq) miyfC/k

‘kq) miyfC/k

vukt

nkysa

dqy

1950&51

363

401

41

443

80

334-2

60-7

394-9

1960&61

44-2

609

35

646

111

399-7

69-0

468-7

1970&71

55-1

845

20

840

103

417-6

51-2

468-7

1980&81

68-9

1041

5

104-8

94

417-3

37-5

454-8

1990&91

85-2

1419

6

1457

129

4685

41-6

510-1

2001&02

103-3

1625

45

1456

129

4685

41-6

510-1

2002&03

106-8

1432

71

1593

113

366-2

30-0

416-2

2004-06

110-3

1621

71

1594

127

390-9

31-5

422-4

 

भारतीय कार्यकारी जनसंख्या का कृशि पर आश्रित है, 1951 में कुल मुख्य श्रमिकों का लगभग 70 कृशि तथा सम्बद्ध क्रियाओं में कार्यरत था। वहां 2001 में गिरावट हुई और यह 59 हो गया, अर्थात कृशि द्वारा 23.5 करोड़ व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध कराया गया। दसवीं योजना ने यह अनुमान लगाया कि भारत में कृशि कुल श्रमषक्ति के 57 को रोजगार उपलब्ध कराती है। यह बात बहुत निराषाजनक है कि 1951 - 2001 के दौरान कृशि श्रमिकों के अनुपात में वृद्धि हुई है। यह 20 से बढ़ 27 हो गया है। इसके विरूद्ध कृशकों की मात्रा 50 से कम होकर 32 हो गया है।

 

उपर्युक्त अध्ययन से स्पश्ट होता है कि जनसंख्या सूचकांक में निरंतर वृद्धि हो रही है, यदि 2000-01 को आधार वर्श माने तो पता चलता है कि जनंसख्या सूचकांक 2006-07 तक 110.10 हो जाता है जबकि चांवल का सूचकांक 109.2 तथा गेहूं का सूचकांक 107.5 और मोटे अनाज का सूचकांक 108.7 है। जनसंख्या सूचकांक के बराबर या अधिक, उत्पादन सूचकांक 2001-02 को छोड़कर किसी भी वर्श में नहीं हुआ है। 2002-03, 2004-05 एवं 2005-06 में उत्पादन सूचकांक बहुत कम है इससे यह स्पश्ट होता है कि कृशि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता जा रहा है।

 

जनसंख्या का विभिन्न उत्पादनों के साथ सहसम्बंध गुणांक

अध्ययन     सहसंबंध     सम्भाव्य विभ्रम च्म्

चांवल एवं जनसंख्या   त्र .31   .23

गेहूं एवं जनसंख्या      त्र .28   .23

चांवल, गेहूं, मोटा अनाज एवं जनसंख्या    त्र        .36   .22

कुल कृशि उत्पादन एवं जनसंख्या   त्र .25   .23

जनसंख्या तथा विभिन्न खाद्यानों के उत्पादन के बीज सहसंबंध ज्ञात करने से यह स्पश्ट होता है कि इनके बीच निम्न स्तरीय धनात्मक सहसंबंध है।

 

संदर्भ ग्रंथः-

1.  चंद्राकर, अवधराम एवं जायसवाल, अषोक: ‘‘धान की कृशि में मषीनीकरण‘‘

2.  दत्त, रूद्र एवं सुन्दरम्, के.पी.: ‘‘भारतीय अर्थ व्यवस्था‘‘, एस. चंद कम्पनी लिमिटेड रामनगर, नई दिल्ली 110055, पृश्ठ क्रमांक 423- 424

3.  माहेष्वरी एच.एल. एवं चैहान, सपना सिंह: ‘‘भारत की विभिन्न पंचवर्शीय योजनाओं में कृशि एवं ग्रामीण विकास‘‘ रिसर्च लिंक, वर्श टप्प्प् (4) जून - 2009, पृश्ठ क्रमांक 139-141

4.  कटहरे, गजानंद: ‘‘भारतीय कृशि पर जनसंख्या का दबाव‘‘ षोध-प्रकल्प, अंक: 42, वर्श-13, संख्या:1, जनवरी-मार्च, 2008

 

 

 

 

 

 

 

 

Received on 19.09.2011

Revised on   30.09.2011

Accepted on 17.10.2011

© A&V Publication all right reserved

Research J.  Humanities and Social Sciences. 3(1): Jan- March, 2012, 62-64